Monday, April 1, 2013

हम हिंदुस्तानी क्या नहीं बेचते हैं ?


कैसे हैं हुज़ूर ? ?

बेशर्मी बदस्तूर रखते हुए माफ़ी मांगने के सवाल को तो हम ऐसे ही कन्या भ्रूण की तरह कोख में  निपटा चुके हैं तो क्यों न डायरेक्ट बकैती चालू की जाये….

झूठ न कहेंगे, मगर जब से इस जगह आये हैं। हमारी लगते जिगर नूरी के रंग बदलते मिजाज़ और अजमेरी के बे सिरपैर के जुमले ही नसीब होते आ रहे थे की अचानक परसों शाम को जब घासी लाल डाकिये की सॉफ्ट कॉपी हमारे इ-पते पर एक सन्देश मिला, बहुत अजीब सा, अनजान सा…. न भेजने वाले का नाम न ही कोई संपर्क सूत्र।। सिर्फ एक अजीब सा इ- पता - जिसको अगर हिंदी में कहें तो ठंडा लड़का समझ में आता है….
खैर, इस सन्देश में जो बात लिखी थी वो असल में बात नहीं एक सवाल था, सपाट….
आप क्यों कहते हैं कि हम हिंदुस्तानी सब बेचते हैं ?

मियाँ, आपको जवाब वही पर देना लाजिमी न  लगा तो सोचा सबके सामने ही बताये देते है।

तो देखिये साहब मसला यही है न कि हम ऐसा काहे कहते हैं तो सुनिये….

साल शुरू होते ही हमारे यहाँ बेचन प्रक्रिया शुरू हो जाती है और वो साल के आखिरी दिन तक बिना थके बिना रुके दौड़े पड़ी रहती है…

जनवरी- साल का सबसे पहला महिना जिसमे सबसे पहले नया साल बिकता है….  नए साल के संग हलकी सी      सर्दी, उत्तरी भारत में सूरज का उत्तरायण होना बिकता है… दो चार दिन का  निकलता है कि आजादी या जनतंत्र बिकने लगता है…. कहीं छब्बीस प्रतिशत की छूट बिकती है तो कहीं तिरंगे के कोम्बिनेशन की पोशाक बिकती है….

फरवरी- आजादी का नशा  उतरते उतरते प्रेम दिवस की मनुहार बिकती हैं, प्यार के हफ्ते तक बिकते हैं जनाब…. कभी गुलाब दिवस तो कभी टेडी दिवस, फिर चुम्बन दिवस फिर आलिंगन दिवस और अंततः प्रेम दिवस… किस्सा यहीं ख़तम नहीं होता जनाब, बेचने की भूख ने तो हेट डे  और न जाने और कौनसे दिन बना दिए है… चलिए तो कहने का मतलब है नन्ही सी फरवरी इन बड़े बड़े प्रेम दिवसों के सेलिब्रेशन में शहीद हो जाती है…

मार्च - मार्च का महीना, फागुन का उफान बिकता है… होली बिकती है… जाती ठण्ड ; एंड ऑफ़ सीजन सेल से बिकती है, वित्तीय वर्ष का समापन बिकता है ..

अप्रैल-मई कुछ  इलाकों में हिन्दू नववर्ष बिकता है… फिर माता रानी नवरात्रों के नो  मैं बिकती है… आखिरी दिन रामनवमी के रामजी बिकते है…. इनको तेल लेने भेजिये… अब तो आईपीएल बिकता है… पहले सोचते थे मई में कुछ नहीं बिकता मगर अब मई के बड़े भाई अप्रैल में सिर्फ और सिर्फ आईपीएल बिकता है।

जून- गर्मी बिकती है हुज़ूर, चुभती जलती गर्मी का मौसम आता है…. डेटोल, लाइफबॉय और न जाने कौन कौन से समाज सेवी अपने ही बनाये  प्रोडक्ट्स को काट के नए प्रोडक्ट्स के लिए गर्मी बेचते हैं ....

जुलाई - बच्चों के एडमिशन बिकते है ... मानसून बिकता है….

अगस्त - मानसून के बाजे के संग आज़ादी की दुल्हन का बियाह होता है… और हर साल की ये दुल्हन हर बार बिकती है .....  जोश भरने के लिए नए नए ऑफर्स बिकते है…

सितम्बर- दिसंबर  - इन चारों महीनों को संग में लिखने की गुस्ताखी के लिए मुआफी मगर यही सही है….  कभी दशहरा बिकता है… फिर दिवाली और दिवाली और दिवाली, फिर आने वाली गुलाबी सर्दियाँ, फिर क्रिसमस और सर्दी की छुट्टियाँ और फिर नया साल .....

इस माहवार बकैती के अलावा कहें तो किरकिट पूरा साल बिकता है…. कभी धमाकेदार खेल बिकता है कभी ताजगी भरी खुश्बुए बिकती है... कभी गोरा चेहरा बिकता है ... कभी किसी के सट्टे बिकते हैं .... सदाबहार शादियाँ बिकती हैं ...... अमिताभ से लेकर राजपाल तक बिकते हैं ..... विद्या से लेकर सनी बिकती है ..... चड्डी बनियान से लेकर घर से बाहर कंडोम का साथ बिकता है ...

संविधान की शपथ लेने वाले नेता बिकते हैं ...... बिकने से रोकने वाली वर्दी तक बिकती है…. जान बचने के लिए बने ऑक्सीजन के सिलेण्डर बिकते है ... तो सरहद की हिफाज़त के लिए बने टैंक बिकते है .... बिन ब्याही माँ के बेटे बिकते हैं और ब्याही माँ की बेटियां बिकती है ..... गरीब जीने के लिए बिकता है… और अमीर बिकने के लिए जीता है .... शहीदों के कफ़न के लिए बने तिरंगे बिकते हैं .... रेलवे की सवारी के लिए सीटें बिकती है ....
बच्चों की ऊंची पढाई के लिए बाप अपनी तनख्वाह बेचता है… और तनख्वाह के लिए अपनी ज़िन्दगी बेचता है…

फेसबुक के लिए मोबाइल और मोबाइल के लिए इन्टरनेट बिकता है… कोई खुद को बेच रहा है और कोई दूसरों को बेच रहा है…

मियाँ कूल डुड  जी आप ही बताएं क्या हम हिंदुस्तानी सब नहीं बेच रहे हैं ....

Shailendra Raj Goswami 




Saturday, December 29, 2012

तुम्हे नमन है देवी

आज उसने सुबह की पहली किरण के जागने से पहले हमेशा के लिए आँखें मूँद ली ...

उसका नाम दामिनी था या अमानत कोई फर्क नहीं पड़ता ... फर्क सिर्फ इस बात से पड़ता है कि एक मनहूस रात का असहनीय दर्द और उसके परिणाम अपने सीने में  लिए ही उसे इस दुनिया से विदा होना पड़ा ...

बहुत दिनों बाद आज कीबोर्ड पर उंगलियों को नचाने पर मजबूर हो गया हूँ ... तडके 5 बजे के करीब जंतर मंतर पर बैठे एक मित्र के फ़ोन के बाद दिल बहुत बुरी तरह बैचैन है .. उसने क्या क्या सहा होगा उस रात ?? जिस पीड़ा को उस शेरनी ने सहा उसकी कल्पना मात्र से झुरझुरी सी छूट जाती है .....

उसका अपराध क्या था ? सिर्फ यही की वह किसी आम लड़की की तरह अपने मित्र के साथ सिनेमा का लु त्फ़ उठा अपने घर लौट रही थी ..... शराब के नशे में धुत्त उन दरिंदों ने क्या एक पल को भी नहीं सोचा कि वो किस हैवानियत की हदें पार कर रहे हैं ....  आज पहली बार इतना बेबस महसूस कर रहा हूँ ....

उन्हें अपनी हवस मिटानी थी ... मिटा ली थी ... मगर उसके बाद की बर्बरता की क्या जरूरत थी .... पाशविकता की विकृत बेड़ियों में जकड़े अल्पविकसित मष्तिष्क का उदहारण देने की क्या जरुरत थी ....
 हे ईश्वर !!! विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में "लोक" ही इतना मजबूर क्यों है ....

उसने पर्याप्त दर्द सह लिया था मगर I WANT TO LIVE के नोट ने न जाने क्यों दिल में एक टीस सी छोड़ दी ... उसने शायद खुद भी नहीं सोचा होगा की वो उन अनगनित मासूमों का चेहरा और आवाज बनेगी .... उसके दर्द को उसी ने सहा मगर हर एक इंसान जिसने एक भी बार माँ के पल्लू में चेहरा छुपाया होगा .... जिसने एक भी बार अपनी बहिन से छीन के उसकी चोकलेट  खायी होगी ने उसका दर्द दिल में महसूस किया ....

टूटकर बिखरी हैं जहां बहनों की चूड़ियाँ 
वहीँ से अब क्रांति का सैलाब निकलेगा 
जिस जमीं पर गिर हैं खून नौजवानों का 
कल उस जमीं से इन्कलाब निकलेगा  
  
भ्रष्टाचार, गरीबी और आतंकवाद का हर नये दिन सामना करने वाले आम आदमी ने मुंह पर टाँके लगा  सब कुछ सहा है ... मगर इस मासूम के दर्द ने न जाने कहाँ से इतनी शक्ति भर डाली है कि  ना तो अब आंसू गैस की परवाह है ना पानी की तोपों की .... और हो भी क्यों जो लहू पानी बन कर नसों में बह रहा था उसने अपनी लालिमा प्राप्त कर खून का रूप हासिल किया है .... आंसू हैं मगर दिल में .... आँखों में एक ही जूनून है कि उस मासूम और उस जैसी न जाने कितनी दामिनियों और अम्नातों की अस्मत तार तार करने वाले निर्लज्ज बलात्कारियों को किसी भी तरह से न बक्शा जाए ... (हालाँकि हमारे प्रधानमंत्री ने यह बात हमेशा की तरह बोल दी है )

वेंटीलेटर में  जकड़ी  उस देवी ने शायद ये महसूस कर लिया था कि  उसके दर्द के हमदर्द बाहर लाचार पड़  रहे हैं ... उसके इन्साफ की जंग शायद "आजीवन कारावास" पर ही सिमट के रह जायेगी ..... ये उसकी देह का अंत नहीं है ... ये उसका बलिदान है .... शायद लक्ष्मीबाई, भगतसिंह, राजगुरु जैसा या उनसे भी बढ़कर .....
आज के इस भ्रष्टाचारी भारत में जहाँ लगभग हर बात पर राजनीति और वोट बैंक की रोटियां सेंक ली जाती हैं वहां इस जांबाज़ ने मुंह पर ताला  लगा ठोस कदम उठाने की मांग वाली क्रांति का सूत्रपात कर डाला है .... मंगल पाण्डे की तरह इस नौजवान लड़की की शहादत कभी न भूली जा सकेगी ....

राजनीति आज जहाँ कुकुरनिती बनी जा रही है।। वहीँ जवान भारत बदलाव की मांग गला फाड़ फाड़ कर रहा है .... ये इस लोकतंत्र का वो वर्ग है जो बलात्कार पीड़ित किसी मासूम को घिनौनी नज़र से तिरस्कृत नहीं करता बल्कि उसके साथ कंधे से कन्धा मिला खड़ा होता है .... ये वो हैं जो रंग दे बसंती जैसा कुछ कर गुजरने में गुरेज़ नहीं करेंगे ...

लंका तभी जलती है जब पूँछ में आग लगती है ..... लंका क्या और कौन है ये हम जानते हैं ... भारत का युवा हनुमान है ... इस मासूम ने पूँछ में आग लगा दी है ...  अगर रावण अब भी नहीं जगता है तो फिर दिल्ली दूर नहीं .... लंका का विनाश तय है ...

जाते जाते उस अनाम देवी को मेरी अश्रुपूरित हार्दिक श्रधांजलि ..... देवी शायद ईश्वर से भी तुम्हारी पीड़ा न सही गयी ... तुम इस संसार के लिए नहीं हो।।।। तुम जैसी आत्माओं के लिए परमेश्वर ही सबसे उपयुक्त स्थान है .... चिंगारी तो तुमने जला दी।। अब परमात्मा के गोद में बैठ देखना कि युवा भारत लंका विजय कैसे करता है ....

ईश्वर तुम्हारी आत्मा को शांति दे ....... शांति ....... 

Sunday, February 12, 2012

INDIAN RAILWAYS- WHAT I FEEL :-)

Indian railways deserve a huge credit this year for certain superb efforts made this year...
being the largest government employer of the world Indian railways used to lack somewhere in its operation and management every year but this year the picture is somewhat different.

The biggest enemy or hurdle in the railway management is FOG and every year it costs uncounted lives and numerous financial loss to the Indian Economy. Every year, the time period starting from December to Mid February is said to be the RED Period where certain unfortunate accidents take place due to unclear visibility, cracking of railway tracks and other untold reasons. But this year inspite of comparatively prolonged winter season the Railways have been able to prevent any of such mishappenings. And the credit fully goes to the Management of Indian Railways.

This post is not to please any concerned person of railways or any other government department but to mark the success of the LIFE LINE OF EMERGING INDIA. Right from Kashmir to Kanyakumari... From Guwahati to Ahemdabad the Indian Railways connects India in its real sense. Unity in Diversity becomes awesomely materialized when you see different families from different areas of the nation in one compartment or one coach and it is the Indian Instinct that at the end of the journey when you get down of your respective train you have atleast one contact no. of your co- passanger whom you did not know before entering into the train. 
Apart from combating FOG, this year Indian Railways have introduced certain necessary changes in its ticketing policies particularly the TATKAL SCHEME. Its only few months back that the so called AGENTS used to take Guarantee of obtaining a Confirm Ticket for your journey but the restrictions introduced in the recent time has put a cap over this kind of system.
Although it is true that the BLACK SPOT waiting list still exist in the Ticketing System but the day is not too far when this would also be vanished off. A recent news provides that a system is pending for consideration under which depending upon the no. of wait-listed passengers new coaches or a similar train on similar timings would be run. This system if implemented would facilitate both passengers as well as the Indian Railways.

I have been a regular railway's passenger and these changes make me much assured of the qualities and continuous improvement in the system. 
LONG LIVE INDIAN RAILWAYS :-)

Friday, November 18, 2011

अन्ना, अनशन और उसके बाद....

अन्ना जी के आन्दोलन के बाद हवा का रुख जरा बदला बदला लग रहा था... गांधीजी की इस मोर्डेन फोटो कॉपी ने तो दुनिया की सबसे बड़ी जम्हूरियत के आकाओं की चूलें हिला दी..... 

मगर साहब अब तमाशा ख़त्म और पैसा वसूल... हम भी लखनऊ की विधानसभा के सामने गला फाड़ने गए थे.. और खैरियत से वापस भी आ गए.... तहेदिल से अन्ना जी का शुक्रिया कि वहां से आने पर सालों के बाद देसी घी वाली जलेबियाँ नसीब हुयी.... नूरी जी के वचन आप भी सुन लें मेरा मतलब पढ़ लें... " पता है ऐसे मौके हर किसी को नहीं मिलते, और मुझे आप पे फखर है.. और हम अन्ना के साथ हैं"  

अब आप ही बताइए... हमारे दिल की धडकनों ने सबेस्टियन वेटल की गाडी से भी ज्यादा  तेजी पकड़ ली. और हो भी क्यों ना, अरे हुज़ूर जिस इंसान ने कभी मोहल्ले की श्रीमती शर्मा, श्रीमती दुबे या दूधवाले इस्तरिवाले से इतर कभी बात ना ही की हो और ना ही कोई दिलचस्पी ली हो... वो ऐसा बोले तो धडकनों का तक धिना धिन वाजिब है... धन्य हो अन्ना जी जलेबियों के क्षणिक सुख के अलावा आपने हर रोज अख़बार खोलने पर सुनने को मिलने वाले भाषणों से सदा के लिए मुक्ति दिला दी..

जनाब अपने सबसे खास दोस्त अजमेरी की कसम, जितने वक़्त अन्ना जी रामलीला मैदान में भूखे रहकर सरकार का खाना पीना हरम कर रहे थे हमने अपनी सारी मनपसंद गैर-मुनाफा गतिविधियाँ हमारी श्रीमतीजी के परमिशन के साथ पूरी की. 

अब आप सोच रहे होंगे कि अमां ऐसा क्या करते हो यार जो कि अपने घर की लक्ष्मी, चंडी का रूप लिए तुम्हारे पीछे पड़ी रहती हैं.. अरे अरे... भाई हम ऐसा कुछ नहीं करते जिससे आपको अपनी आई ब्रोज़ सिकोड़ने की जरुरत पड़े... हमारे इन कामों में कुछ टुच्चे मुच्चे काम जैसे कि अजमेरी के साथ अप्रभावी बहस करना (अप्रभावी इसलिए कि उनसे किसी के बाप का कुछ नहीं जाता, कॉमनवेल्थ खेलों वाला किस्सा तो आपको याद ही होगा) ... और उसी के दरमियान हमारी उनको चाय पकौड़े के लिए तकल्लुफ़ देना वगैरा वगैरा शामिल हैं....

अरे यार, फिरसे से हम हिंदुस्तान को छोड़ के घर में घुस आये... चलिए चलते हैं अन्ना जी के पास.... हाँ तो साहब पहले पहले दिन हम, अजमेरी, गुप्ता जी, तिवारी जी गए थे गला फाड़ फाड़ के "मैं भी अन्ना" बनने... 
हाँ तो सुनिए साहब, 

हम सुबह जब श्रीमती जी की बनाई पहली और आखिरी प्यार भरी चाय पी रहे थे तो अजमेरी ने अपनी आदत से मजबूर हो दरवाजा पीटना चालू कर दिया... अरे मियाँ चलो... चलो... अन्ना को पुलिस वाले उठा ले गए हैं.... ना जाने अब क्या होगा..... उनींदे हमारे मूंह से निकल गया यार अजमेरी अन्ना जेल में और आन्दोलन ख़तम काहे परेशां हो रहे हो ??? बस साहब ... उस दिनों तो अमेरिका और ब्रितानिया हुकूमत के साथ में होते हमलो की  तरह अजमेरी और नूरी हमपे बरस पड़ी.. अजीब नामाकूल हो यार तुम..  सुबह सुबह दिमाग का कबाब ना बनाओ... चलो जल्दी चलो विधान सभा पे इकठ्ठा होना है.... इतना कह अजमेरी तो खिसक लिया... और श्रीमती जी ने अपना सत्याग्रह शुरू कर दिया... जब से तुम्हारे पल्ले बंधी हूँ... रोज रोज बेमतलब की मीटिंगे करते फिरते हो और आज सब हकीकत में कुछ करने का मौका आया तो लापरवाही से चाय सुड़क रहे हो..... अगर ऐसा पता होता तो तुमसे कभी ना शादी करती... हमने कहा.. क्या मतलब है तुम्हारा ??? तभी अगला धमाका हुआ... वो ये कि तुम ऐसे तो हम हिन्दुस्तानियों को बड़ा बोलते हो.... के हम सिर्फ बोलते हैं... कुछ करते नहीं... और जब आज तुम्हे मौका मिला तो तुम भी उन्ही कि तरह घर में पड़े हो.... शर्म आती है... 
दोस्तों... एक गैरत वाला मर्द दुनियां में सब बर्दाश्त कर सकता है मगर अपनी रामप्यारी के मूंह से ऐसे अलफ़ाज़ नहीं बर्दाश्त कर सकता.... हम भी ना कर पाए.....

तुरंत गए और जिंदगी में पहली बार आधी ही बाल्टी से नहा कर सुपरमानव कि तरह 15 मिनट में तैयार हो निकल लिए..... नूरी जी पीछे से चिल्लाती ही रह गयी... अरे नाश्ता तो कर जाओ... मगर जनाब अब किसे परवाह थी... हमे तो हमारी लगते जिगर नूरी की शर्म का समाधान करना था..... अगले आधे घंटे में हम अपने उपरोक्त दोस्तों की टोली के नेता बने विधानसभा पे नजर आये.... 

वहां पहुँच के अच्छे खासे लोकतंत्र के समर्थक मिल गए...... तो साहब अब करें क्या.... किसी ने नारे लगवाना चालू किया तो मानो इस भीडतंत्र को दिशा मिल गयी... वैसे हमारे इस मजमें की बात ना करके पूरी सियासत की ही बात करें तो हालत ऐसे ही हैं... खैर.... "अन्ना तुम संघर्ष करो हम तुम्हारे साथ हैं" "मुल्क हमारा आपका नहीं किसी के बाप का" जैसे नारों ने लगा जैसे सरकार के कानों तक आवाज पहुंचा ही दी.... एक डेढ़ घंटे में हमारे वर्दी के मुलाज़िमो ने दस्तक दे ही दी...

मतलब साफ़ था " भीडतंत्र" सही दिशा में जा रहा था..... वैसे शायद हमारे पूरे इतिहास में पुलिस कुछ भी वारदात होने से पहले ही पहुँच गयी थी.... साहब पीने को पानी तो नसीब हो जा रहा था वहां मगर सुबह नूरी पे किये गए गैर-इरादतन गुस्से के साइड इफेक्ट्स अब नजर आने लगे थे... चिल्ला चिल्ला कर गला सुख रहा था... मगर उस वक़्त पानी से ज्यादा कुछ ठोस खाद्य पदार्थ की जरुरत महसूस होने लगी.... 

उस भीड़ में हमे हमारा सहारा अजमेरी ही मिला.... जब उसे बताया तो उसने सहर्ष हमें एक आइडिया दे डाला...(ख़ुशी हुयी छोटे बच्चन के अलावा भी इस देश में कोई आइडिये देता है)... चलो मियाँ कुछ खा लेते हैं... संघर्ष में ख़ाली पेट जीतने की संभावनाएं कम होती है.... हम थोडें ना कोई अन्ना हैं.. नारे लगाने से ही सब कुछ नहीं ना हो जाता है..... सौ एक कदम चलने पर एक समोसा भण्डार नसीब हुयी जिसने अपने प्रोडक्ट्स की कीमत बता के कानों में शीत लहर दौड़ा दी.... बीस रुपये का एक समोसा... पैंतीस के दो..... लेना है तो लो वर्ना आगे निकलो....

कसम से... नवाबी शहर की इस तहज़ीब का सामने जिंदगी में पहली बार हुआ था और हम इसी कडवे सच को चीनी घोल के पीने की कोशिश कर रहे थे कि अजमेरी को दुकानदार से बहस करते पाया..( हमें अपने आप पे थोडा सा फखर हुआ कि हमसे बेफिजूल कि बहस कर कर के कुछ तो सिखा इसने) "क्यूँ मियाँ... इतनी महंगाई कब से हो गयी... बीस रुपये का एक समोसा ???? ऐसा काहे?" "देखो मियाँ, धंधे के टाइम क्यों दिमाग खा रहे हो... आज बरसों बाद इतने समोसे बिके हैं... वरना पिज्जा और पास्ता ने तो धंधे को ठप कर दिया है... और आप कहते हैं महंगा क्यों बेच रहे हो... और मियाँ अभी तो दुपहरी हुयी है.... शाम तक पचास का एक बिकेगा.. अब लेना है तो लो वर्ना माफ़ करो... कोई दूसरी दूकान ढूंढो...." राष्ट्रीय राजमार्गों की तरह सपाट जवाब सुन के हमने भरे मन से पैंतीस रूपये चलते किये और समोसे ले कर अपनी क्षुधा शांत की....
चटनी को ऊँगली से चाटते हुए अजमेरी थोडा इमोशनल हो गया.... यार ये करप्शन तो साला समोसे की दुकान तक में है.... इसके लिए कौनसा लोकपाल काम करेगा....? हमने अजमेरी को समझाया... देखो मियाँ जब सरकारी तंत्र से भ्रष्टाचार हटेगा तो ये दूकान वाले किस खेत की मूली हैं.... ना जाने क्यों अजमेरी एक ही बार में हमारे जवाब से संतुष्ट हो आगे बढ़ गया..... वहां पहुँच गुप्ता जी और तिवारी जी के गले को फटे बांस की तरह बजता पाया.... हमने उन्हें पानी पीने को रवाना किया और मोर्चा संभाला.... 

मगर बढती धुप में धरनास्थल की घटती जनसँख्या ने हमे चिंतित कर दिया.... एक हज़रात को रोक हमने पूछ ही लिया... क्यों मियाँ कहा चले.... जवाब मिला.... देखो भाई ... सुबह आठ बजे से बैठे हैं.... बोर हो गए हैं... जरा सहारागंज में एसी की हवा खा आयें.... और वैसे आप लोग तो हैं ही वैसे भी कौनसे अन्ना जी यहाँ आके देखने वाले हैं.... 
पहले समोसा... फिर सहारागंज.... यार अजमेरी... अन्ना कहाँ है ????..... 
वैसे सहारागंज की कोई गलती नहीं है.... वो तो खुलेगा ही.... मेकडोनाल्ड या पिज्जा हट को करप्शन से कोई फर्क थोड़े ना पड़ता है... फिल्मे अन्ना की वजह से दिखना बंद थोड़े ना हो जाएगी.... करोंडो का इन्वेस्टमेंट इस भ्रष्टाचार से थोड़े ना प्रभावित होगा..... 

दोपहर बाद चार बजे से जनसँख्या वृद्धि पुनः शुरू होती दिखी....अब हमे समझ में आया की अन्ना की आंधी में दम तो है मगर सूर्य देवता के आशीर्वाद के सामने जरा फीकी है... कसम नूरी की... जनाब हम और अजमेरी वहां से समोसे के अलावा हिले तक नहीं....

शाम छह बजे तक कुछ निजी खबरिया चेनल वालों ने भी दस्तक दे डाली.... एक अत्यंत कमसिन कन्या जिन्होंने अजमेरी को मोह लिया था हम लोगों के बीच बैठे कमरे के सामने कुछ कह रही थी.... जैसे ही उसने पूरे दिन से अपनी खोपड़ी पकाते हम जैसे से मुखातिब होना चाहा... एक सफेदपोश नेताजी ना जाने कहाँ से टपक पड़े और बिना किसी का इंतज़ार किये कहने लग पड़े..."अन्ना जी का आन्दोलन हमारे राष्ट्रहित में है.. और हमारी सोसाईटी पार्टी उनके साथ है" इसी बीच सत्ता की पार्टी "बहुत सारे समाज पार्टी" के एक नेता का आगमन मालूम हुआ..... चैनल वाले वालियों की भीड़ उधर रुखसत हो गयी.....अन्ना जी के अनशन से बेहतर चुनाव प्रचार का जरिया हो नही सकता.... 

ऐसा करते करते रात के आठ बज लिए.... हम और अजमेरी अब अकेले बैठे थे.... गुप्ता एंड कंपनी ना जाने कब की फरार हो चुकी थी.... आँखे जल रही थी... मगर उठाना नहीं था..... इतने में आयोजक महोदय पूरे दिन में पहली बार हमसे मुखतिब हुए.... कहा " आप लोगो का सहयोग वाकई काबिल-ए-तारीफ़ है, इस आन्दोलन का लखनऊ में आयोजक होने के नाते आपका धन्यवाद.. मैंने सुबह से कई बार आपसे मिलने की कोशिश की मगर आपकी तरह आ ना सका.... आप सुबह से ही यहाँ है... बेहतर होगा आप अब आराम करें... अन्ना जी के आज रात तक रिहा होने की ख़बरें आ रहीं है.... आपकी मौजदगी की हमें कल फिर से होगी.... आप अभी घर जाएँ और अपने आप को कल के तैयार करें" 

हमने अनायास ही अजमेरी की तरफ देख लिया.... शायद उसकी आँखों में भी वही बातें और विचार थे जो हमारे थे.... पूरे दिन के किस्सों चाहे समोसा हो या सहरागंज़ या धुप के बीच हम जैसे और लोग भी हैं.. जो अपने साथ दुसरे लोगों को भी इतनी शिद्दत से देख भी रहे हैं और प्रेरित भी कर रहें हैं.... बात चाहे हमारी नूरी की हो या उन आयोजक महोदय की.... इतना तो साफ़ हो गया कि मैं भी अन्ना का नारा सिर्फ बोलने या चीखने या चिल्लाने के नहीं बना है... उसे आत्मसात करने वाले हमारे वतन में मौजूद है.... और शायद यही वजह है कि लोकतंत्र के ठेकेदारों को घुटनों चलकर सवा सौ करोड़ लोगों की मांगे माननी पड़ी..... हिन्दुस्तानी होने का फख्र सीने में नहीं समां रहा था...... किस्सा सिर्फ पहले दिन का ही है जनाब मगर येही कहानी बदस्तूर चली और लोकतंत्र की विजय में परिणीत हुयी.... 
अच्छा तो साहब... इन्ही अल्फाजों के संग विदा लेते हैं.... हमारी लगते जिगर नूरी जलेबियों के संग हमारा इंतज़ार कर रही है...... जय अन्ना.. जय भारत.... जय लोकतंत्र.....  

Thursday, December 23, 2010

दिल्ली दिलवालों की

कैसे हैं हुज़ूर....
सबसे पहले आप सभी से अपने दोनों पर्सनल हाथ जोड़कर माफ़ी कि इत्ते दिन गायब रहा... चिट्ठी न कोई संदेस सजन मोहे भूल गए....
खैर, अब मुद्दे की बात पे आते हैं...
ज़नाब आज हमारा परिंदा टाइप दिल फिर से दिलवालों की दिल्ली की तारीफ़ करने को कर रहा है.....
दिल्ली से हमारा पहला परिचय शायद दो तीन साल की उम्र ( या बाली उमर) में हुआ था जब हमारे पिताजी दिल्ली का नाम लिया करते थे.....
उसके बाद जब हमे लात मार मार कर इस्कूल में फेंका गया तो वहां काली फ्रेम के मोटे चश्मे वाले मास्साब ने रटा दिया "नयी दिल्ली भारत गणराज्य की राजधानी है"
उसके बाद हमारे जिगरी दोस्त मियाँ अजहर अजमेरी ने अपने बेमिसाल दिल्ली प्रेम से हमारे दिल में भी इस दिल्ली के बारे में चाहत बढ़ा ही दी..... मियाँ अजमेरी का दिल्ली प्रेम तो आप देख ही चुके हैं..... दिल्ली को सरजमीं पे कदम हमने उस वक़्त रखा जब हम छठी कक्षा में थे.. पड़ोस वाली बहुत ही ख़ास बुढिया अम्मा के अंतिम संस्कार या किर्याकरम के लिए पिताजी, माताजी और मैं जब हरिद्वार गए थे तो बस की खिड़की से उनींदी आँखों के रस्ते दिल्ली की सड़कें और सरपट दौड़ती गाड़ियाँ देखी थी....
उसके बाद तो दुनिया की नज़रों में हम समझदार होने लगे..... जिम्मेदारियों से कन्धों का वजन बढ़ने लगा... वक़्त का घोड़ा अपनी मदमाती चाल में चलने लगा..... मगर दिल्ली में अपने मौजूदगी दर्ज करने का मौका न मिला.... दिल्ली के बारे में जो भी जाना.. सीखा.... समझा....... वो हमारी जागृत मीडिया यानी के बुद्धू- बक्से और अख़बार की अज़ीम मेहरबानी से ही हुआ..
मगर ऊपर वाले के फज़ल और हमारी लगते जिगर नूरी के रहमो करम के चलते इस बार हम दिल्ली आ ही पहुंचे....
जी हाँ..... चंद दिनों पहले दिल्ली में हमने अपने डगमगाते कदम आखिरकार रख ही दिए...... कैसा लगता है किसी ख्वाब को हकीकत में बदलते देखना ये अब पता चल रहा है.... और अब हम महसूस कर सकते हैं कि कैसा लगा होगा महत्मा गाँधी को वतन को आज़ाद होते देख कर या क़लाम साहब को मिसाइल उड़ते देख कर ...
वैसे जनाब जब आप ऐसी किसी स्थिति में हों और आपकी रामप्यारी ( मेरा मतलब है कि आपकी लगते जिगर नूरी) आपके साथ हो तो कैसा लगता है ये हमें बिलकुल भी पता नहीं है.......

दिल्ली..... वाह.... तो ये है दिल्ली..... न जाने कितने सालों से हिन्दुस्तानी सियासत के रुख तय करते आ रही है ये दिल्ली..... न जाने कितने लोगों के घरों में दो जून की रोटी पहुंचा रही है ये दिल्ली....अरे हाँ सियासत से याद आया कि कॉमनवेल्थ खेलों के घोटालों कि जांच शुरू हो गयी है.... ख़तम तो न जाने कब होगी मगर ख़ुशी कि बात ये है कि ये शुरू तो हो गयी....
साथ के साथ आपको बताने की गुस्ताखी भी कर दूं कि हिंदुस्तान ने घोटाले और उसकी जांच शुरू करने का अनोखा रिकार्ड बना लिया है...
अरे... हम भी किस गली के मुसाफिर बन बैठे... हम तो बात कर रहे थे आपकी... हमारी..... और हम सब की दिल्ली की......
साहब इक बात तो है.... कॉमनवेल्थ खेलों के बाद इस शहर का नाम कितना मटियामेट हुआ उतना ही इसकी हालत में सुधार हुआ है..
ये शहर बड़ा मस्तमौला है साहब.... हर कोई अपनी धुन में रहता है.... वो कहते हैं ना की मस्त रहो मस्ती में आग लगे बस्ती में.....यहाँ हर इंसान के पास करने को कुछ ना कुछ जरूर है.....
कहें तो कोई भी फालतू नहीं है..... यहाँ एफएम पर बजते शीला और मुन्नी के गुणगान के साथ दिन शुरू होता है..... उसके बाद लाल, हरी बसों या मेट्रो पर हल्ला बोल होता है.... हाँ बताने की जरुरत नहीं है कि यहाँ का हर इक बंदा या बंदी अपने फैशन को लेकर बहुत सिरियस रहता है... मेट्रो हो या बस यहाँ लोग इस तरह से लपकते हैं मानो आज के बाद ये मेट्रो या ये बस सिन्धु घाटी सभ्यता की तरह लुप्त हो जाएगी... मगर कर भी क्या सकते हैं..... ईंधन इतना महंगा हो गया है कि पूछिए मत......
हाँ हम बक रहे थे यहाँ के बाशिंदों के मस्त मौला मिजाज़ के बारे में.... पब्लिक ट्रांसपोर्ट तो हम ऐसे इस्तेमाल करते हैं जैसे कल ही पप्पा ने शोरूम से निकाल के दिया हो.... "बेटा ये लो तुम्हारी मेट्रो... कल से तुम इसी में जाओगे....." या फिर " मेरा राजदुलारा (हालाँकि ये जुमला आजकल "आउट ऑफ़ सर्विस" है) कल से बस में जायेगा"... मतलब हम लोगों को अपनी सांस गले में अटका के धक्के खाना मंजूर है मगर हम पांच मिनट इंतज़ार क्यों कर लें ?
 रोड पर किसी हज़रत को कोई गाडी ठोक कर चली गयी हो तो हम क्या करें..... हम तो ऐसे हैं कि साले को अपनी तरफ से दो चार और पिला दे..... साहब अपने बाप का क्या जा रहा है....
 और जनाब..... जब आप सड़क पार कर रहें हो तो आपके एक पीस में सड़क के दूसरी तरफ पहुँचने की कोई गारंटी नहीं है....... अगर आपको कोई ठोक जाये तो दुआ कीजिये की ऊपर लिखा हश्र आपके साथ ना हो......
हम लोग तो ऐसे बन गए हैं ना कि अपने आगे पीछे कुछ सूझता ही नहीं है.....
देखिये साब... आपको यहाँ हर नसल के इंसान भटकते मिल जायेंगे..... कुछ होंगे हमारी तरह अनपढ़ और कुछ हमारे अजमेरी मियाँ कि तरह एकदम दुरुस्त....
अरे अरे.... ये आप क्या सोचने लगे..... दुरुस्त होने से मतलब है कि ये दुरुस्तगी अखबारी ज्ञान और आक्टोपस कि तरह शिकंजा कसते टेलीविजनी तिलिस्म की मेहरबानी से है... हम लोग मेट्रो में पिसते पिसते इक दूसरे को ज्ञान के समंदर में इतने गोते लगवा देते हैं कि बाहर निकलने के बाद सत्तर साल के बुढ्ढे के सामने गरम सीट पे बैठे करोड़ों जीतने के ख्वाब देखना शुरू कर देते हैं.... हम तो हम हैं....
जानब ये चंद वाकये हैं जिन्हें हमने अपनी नंगी आँखों से पिछले दस- पंद्रह दिनों में देखा है और महसूस किया है कि दिल्ली दिलवालों की है ये बात सुनने और देखने में किसी डरावने सपने से कम नहीं लगता है.....
खैर उम्मीद करते हैं कि ये जुमला किसी ना किसी दिन अपने केरेक्टर में जरुर में आएगा......वैसे अपना दिल्ली दर्शन "ओन द वे" है.....
फिर मिलेंगे आपसे....
दिल्ली हाफ़िज़...

Thursday, August 19, 2010

मिय्याँ अजमेरी और कॉमनवेल्थ खेल.... (जलवा देखिये)

हाँ ज़नाब.... लीजिये हम फिर से हाजिर हो गए आपके सामने....
हुज़ूर... आज का अखबार देखा ????
कॉमनवेल्थ खेलों के बारे में कुछ लिखा है.... भई हमें तो इता दिमाग लगाने की आदत है नहीं मगर हमारे लंगोटिया यार अजहर अजमेरी को इन खबरों का बड़ा चस्का है.....
ज़नाब दिल्ली के जी-जान से भक्त हैं.... चाहे उनकी रामप्यारी उनसे साडी ना दिलाने की वजह मैके में जाके बैठी हो मगर ये साहब महीने में एक बार दिल्ली ज़रूर जाते हैं....
और ऐसा भी नहीं है की वहां जाके हमारे प्रधानमंत्री जी या राष्ट्रपति जी से मिलते हैं... बस जाते हैं.... चांदनी चौक, लाल किला और ऐसी ही एक दो जगहों की फेरी मार के फिर से पहुच जाते हैं हमारे दिमाग की बिना घी की छाछ बनाने...... और उनका ये ज़ुल्म हम पर बदस्तूर दस पंद्रह सालों से जारी है......
तो भैया हमारे अजमेरी साहब की इस महीने की दिल्ली यात्रा कल ही समाप्त हुयी है....... लेकिन शायद हमारी नूरी के डर की वजह से कल के कल ही नहीं आ पाए (बात ऐसी है की हमारी नूरी ने अजमेरी मियाँ को बीडी पी के उनके मैके के क़ालीन पे फेंकते हुए देख लिया था और उसी वक़्त मियाँ को जो धुलाई पड़ी थी, जनाब आज तक सामने आने में शरमाते हैं)..
मगर आज हमारी लगते-जिगर नूरी लखनवी चिकन के नए नमूने देखने बाज़ार पे मेहरबान हुयी हैं तो मियाँ अजमेरी भी हाथों- हाथ टपक पड़े......

ओ तेरी की.... आज जनाब के चेहरे पे साढ़े तेरह बजे थे और हाथ में अख़बार... आते ही बोले अमां यार इस मुल्क़ में मुद्दतों के बाद कोई बड़ा खेल- खिलाडियों का जमावड़ा लग रहा है और हमारे अफसरान को पैसे का हेर-फेर करने से ही फुर्सत नहीं है (शुक्र है अजमेरी मियाँ जैसे नमूनों को भी कॉमनवेल्थ खेलों का इल्म है).....

मियाँ अजमेरी हमारे चहरे को बीच में देख ले रहे थे जो कि मियाँ के बेमिसाल देश और दिल्ली प्रेम को देख के अचम्भे में पड़ा हुआ था... अबे अजमेरी तू कब से ये सब जानने लगा यार...... मियाँ बीच बीच में हम पर झल्ला रहे थे कि हम अपना विशेषज्ञ मत क्यों नहीं ज़ाहिर कर रहे हैं... अब हम क्या बोलते हमारा मुंह और आँखे एक ही सटाइल में खुले पड़े थे...... क्या बोले कुछ सूझ ही नहीं रहा था..... मगर जनाब मियाँ इसके बावजूद बोले जा रहे थे....
बताओ ऐसा कहीं होता है.... मकान बना नहीं और भिखारी पहले ही आ गए.... मियाँ हमारा तो दिल बैठा जा रहा है.. कैसे होंगे ये खेल..... और अगर कुछ ऐसा वैसा हो गया तो हमारा मुल्क़ तो कहीं का नहीं रहेगा.... और दो हज़ार बीस के बाद के ओलंपिक खेलों की मेजबानी भी नहीं मिलेगी.....
आज मियाँ अजमेरी का मिजाज़ बहुत कुछ बोलने का लग रहा था मगर दरवाज़े पर खिटपिट होते ही उनकी छटी इन्द्री ने जाता दिया कि हमारी प्राण- प्यारी शायद वापस आ गयी है तो मियाँ ज़िन्दगी में पहली बार हमारा एक लफ्ज़ सुने बगैर वहाँ से रूखसत कर गए.......

मगर भैया हम ठहरे एक नंबर के फकीरे... हम भी अखबार उठा के लगे पढ़ने... अरे यार देखें तो सही आखिर माजरा क्या है... क्यों हमारे मियाँ अजमेरी आज हाय तौबा मचा रहे हैं......
खैर..... हमने दिल पे पत्थर रख के पढ़ा.... और पढ़ा.... बहुत सारा पढ़ा.......
 बचपन में हमने भूगोल कि किताब में पढ़ा था और मोटे चश्मे वाले मास्साब ने भी बताया था कि बहुतो साल पहले कुछ लोग हमारी धरती माता का चक्कर लगाने पहुचे और आख़िरकार वहीँ पहुच गए जहाँ से चले थे, नतीजा ये जमीं गोल है.....
तो उस्ताद कुछ इसी तरह हम भी पढ़ते पढ़ते वहीँ पहुच गए जहाँ से चले थे..... इते सारे गड़बड़झाले.. इते सारे घोटाले कि हमारे सत्य सत्य सत्यम वाले भी शर्मा जाएँ....
पता नहीं कौन किसे क्या बोल रहा है... किता काम पूरा हुआ है.. किता होना बाकी है कोई नहीं जानता... और सबसे बड़ी बात कोई बताना भी नहीं चाहता है......
अरे हुज़ूर वो तो भला हो इन अख़बार वाले खबनावीसों का कि थोड़े थोड़े कंकर पत्थर डाल कर प्यासा कौवा वाली कहानी कि तरह खबर हमारे प्रजातंत्र को नज़र कर देते है वर्ना हमें तो नहीं लगता कि हमारी दिलवालों को दिल्ली अपने दिल में किती सारी बातें हज़म कर जाए.....
अजमेरी मियाँ कि बातें अभी तक हमारे जेहन में जवान हैं..... मगर समझ में नहीं आ रहा है कि क्या किया जाए..... मगर जनाब एक बात तो साफ़ है.... अगर अजमेरी जैसे लोगों को इती समझ है तो हमारे आलाकमानों से तो बड़े अव्वल दर्जे कि समझ कि उम्मीद होना लाज़मी है.... पर हमको तो लगता है ये उम्मीद, उम्मीद बने बने ही दम तोड़ देगी......
किसी को कोई परवाह नहीं है जनाब.... सब अपनी अपनी जेबें भरने में लगे हैं...... पता नहीं ऐसा मुबारक मौका फिर कब मिले.... और अगर गलती से मिल भी गया तो पता नहीं हमारे हाथ में लगाम हो या न हो..... इसलिए कबीर के देशवाले कबीर कि ही बात माने लगे पड़े हैं...  अरे वही "काल करे सो आज करे सो अब.. पल में परलय होएगी बहुरि करेगो कब"...
तो जनाब हम तो कहते हैं आप भी अगली गाडी पकड़ के निकल लीजिये दिल्ली के लिए.... और कुछ भी तिकड़म भिड़ा के हो जाइये इसी अंधी दौड़ में शामिल.... भर लीजिये अपने खीसें... देश की इज्ज़त जाती है तो जाए....... हमारा और हमारे बच्चों का भला हो रहा है ना... तो बस फिर क्या...... और भई वैसे भी जब हम जेब भरेंगे तभी तो देश की जेबें भरेंगी..

अच्छा जनाब तो इस बेहतरीन आइडिये के साथ हम तो चले अपने नूरी को मनानें... अरे भई दिल्ली चलना है..... और बेहतर होगा आप भी काम पे लग जाइये... खाली जेब वालों की कमी नहीं है यहाँ......... 

जश्न-ए-आज़ादी

इस पंद्रह अगस्त को हम सब भारतवासियों ने आज़ादी का बाजा फिर से बजा लिया... सुबह से ही जगह जगह देशभक्ति के गाने, जय हिंद के नारे लगाकर प्रभातफेरी निकालते बच्चे.... एक ऐसा खुशनुमा माहौल बना रहे थे जिसमे हर वो इंसान जो इस देश के बारे में सोचता है का दिल बाग़ बाग़ हो जाए... लेकिन प्रश्न ये उठता है कि क्या हमारी देशभक्ति सिर्फ पंद्रह अगस्त या छब्बीस जनवरी के लिए ही बची रह गयी है ? और अगर इस सवाल का जवाब हाँ है तो वाकई में ये स्थिति बहुत पीड़ाजनक है... और अगर नहीं तो वो देशभक्ति हम क्यों नहीं प्रदर्शित करते है या कर पा रहे है?
देखिये जनाब.. हालात दोनों मामलो में पेशानी बढ़ने वाले है..... अगर हमारा देशप्रेम इन दो दिनों तक सिमट गया है तो इस देश का बंटाधार होने में वक़्त नहीं है.... और अगर होने के बावजूद हम उससे सामने नहीं ला पा रहे है तो लुटिया डूब जाएगी और हम जैसे बहुत सारे देशभक्त रेलवे स्टेशन के टिकट जांचने वाले कि तरह देखते रह जायेंगे......
इस पंद्रह अगस्त कि शाम को हम जरा बाज़ार की सैर को निकले तो रस्ते में कुछ ऐसे नजारों का दीदार हुआ की क्या बताएं...... कहीं हमारा प्यारा दुलारा तिरंगा किसी मिठाई वाले की दुकान पे ऐसे झूल रहा था मानो हर जलेबी या खस्ता खाने वाले को सलामी दे रहा हो..... एक ऑटो चलाने वाले हजरत ने तो जैसे सारी देशभक्ति एक ही दिन में निचोड़ कर निकालने की ठान ली थी.... आगे तो आगे, पीछे भी कोई दस- पंद्रह पन्नी से बने झंडे लटका लिए थे...  उनमे से दो तीन तो बेचारे पीछे चल रहे ऑटो की रगड़ से वहीँ हमारे सामने फ़ना हो गए.... तांगा, रिक्शा, बस सबने जी भर के उन बेचारे तिरंगों की रगड़ पीट दी.... हम दौड़े और उन तिरंगों को उठा तो लिया मगर हमारा मनमस्तिष्क किसी युवा गांधीवादी के विचारों की तरह दौड़ पड़ा....
हमेशा की तरह घूम फिर कर हम वापस वहीँ पहुँच गए और साथ में चिड़िया की चोंच में दबे दो तीन दानों की तरह कुछ विचार साथ में ले आये....
हुज़ूर बात कुछ ऐसी है कि हमें कही से पता चला कि हमारा तिरंगा सिर्फ कपड़े का बना होना चाहिए.. शायद किसी कानून की किताब में लिखा है..  लेकिन हमने तो पन्नी के तिरंगे भरे बाज़ार अपने कब्जे किये थे... ओ तेरी की.... मतलब जिन तिरंगों को हमने एक बीस की स्पीड से चलते तांगे के सामने से जान पे खेल के उठाया था उनका तो कोई अस्तित्व ही नहीं है.... बताइए ये भी कोई बात हुई... वह हमने अपनी जान की बाज़ी लगा हमारे तिरंगे को बचा रहे थे और यहाँ वो बेचारा इक प्लास्टिक के कतरे से ज्यादा औकात ही नहीं रखता है....
चलिए छोडिये.. हमे क्या करना है... हमे तो अपनी आजादी को दिखाना है ना तो प्लास्टिक हो या कपड़ा क्या फरक पड़ता है..... होगी अगर कोई ध्वज संहिता होगी तो... अपने बाप का क्या जा रहा है.....
हमे तो आजादी का बाजा बजाना है वो हमने दो चार दिन पहले तो बजा ही लिया और छब्बीस जनवरी को फिर बजा लेंगे....

अच्छा जनाब.... हमारी घरवाली अपने कर्मभूमि से चिल्लाना शुरू हो गयी है..... अगर जल्दी से उनकी खिदमत में न पहुचे तो हमारा बाजा बजते भी देर नहीं.....