कैसे हैं हुज़ूर ? ?
बेशर्मी बदस्तूर रखते हुए माफ़ी मांगने के सवाल को तो हम ऐसे ही कन्या भ्रूण की तरह कोख में निपटा चुके हैं तो क्यों न डायरेक्ट बकैती चालू की जाये….
झूठ न कहेंगे, मगर जब से इस जगह आये हैं। हमारी लगते जिगर नूरी के रंग बदलते मिजाज़ और अजमेरी के बे सिरपैर के जुमले ही नसीब होते आ रहे थे की अचानक परसों शाम को जब घासी लाल डाकिये की सॉफ्ट कॉपी हमारे इ-पते पर एक सन्देश मिला, बहुत अजीब सा, अनजान सा…. न भेजने वाले का नाम न ही कोई संपर्क सूत्र।। सिर्फ एक अजीब सा इ- पता - जिसको अगर हिंदी में कहें तो ठंडा लड़का समझ में आता है….
खैर, इस सन्देश में जो बात लिखी थी वो असल में बात नहीं एक सवाल था, सपाट….
आप क्यों कहते हैं कि हम हिंदुस्तानी सब बेचते हैं ?
मियाँ, आपको जवाब वही पर देना लाजिमी न लगा तो सोचा सबके सामने ही बताये देते है।
तो देखिये साहब मसला यही है न कि हम ऐसा काहे कहते हैं तो सुनिये….
साल शुरू होते ही हमारे यहाँ बेचन प्रक्रिया शुरू हो जाती है और वो साल के आखिरी दिन तक बिना थके बिना रुके दौड़े पड़ी रहती है…
जनवरी- साल का सबसे पहला महिना जिसमे सबसे पहले नया साल बिकता है…. नए साल के संग हलकी सी सर्दी, उत्तरी भारत में सूरज का उत्तरायण होना बिकता है… दो चार दिन का निकलता है कि आजादी या जनतंत्र बिकने लगता है…. कहीं छब्बीस प्रतिशत की छूट बिकती है तो कहीं तिरंगे के कोम्बिनेशन की पोशाक बिकती है….
फरवरी- आजादी का नशा उतरते उतरते प्रेम दिवस की मनुहार बिकती हैं, प्यार के हफ्ते तक बिकते हैं जनाब…. कभी गुलाब दिवस तो कभी टेडी दिवस, फिर चुम्बन दिवस फिर आलिंगन दिवस और अंततः प्रेम दिवस… किस्सा यहीं ख़तम नहीं होता जनाब, बेचने की भूख ने तो हेट डे और न जाने और कौनसे दिन बना दिए है… चलिए तो कहने का मतलब है नन्ही सी फरवरी इन बड़े बड़े प्रेम दिवसों के सेलिब्रेशन में शहीद हो जाती है…
मार्च - मार्च का महीना, फागुन का उफान बिकता है… होली बिकती है… जाती ठण्ड ; एंड ऑफ़ सीजन सेल से बिकती है, वित्तीय वर्ष का समापन बिकता है ..
अप्रैल-मई कुछ इलाकों में हिन्दू नववर्ष बिकता है… फिर माता रानी नवरात्रों के नो मैं बिकती है… आखिरी दिन रामनवमी के रामजी बिकते है…. इनको तेल लेने भेजिये… अब तो आईपीएल बिकता है… पहले सोचते थे मई में कुछ नहीं बिकता मगर अब मई के बड़े भाई अप्रैल में सिर्फ और सिर्फ आईपीएल बिकता है।
जून- गर्मी बिकती है हुज़ूर, चुभती जलती गर्मी का मौसम आता है…. डेटोल, लाइफबॉय और न जाने कौन कौन से समाज सेवी अपने ही बनाये प्रोडक्ट्स को काट के नए प्रोडक्ट्स के लिए गर्मी बेचते हैं ....
जुलाई - बच्चों के एडमिशन बिकते है ... मानसून बिकता है….
अगस्त - मानसून के बाजे के संग आज़ादी की दुल्हन का बियाह होता है… और हर साल की ये दुल्हन हर बार बिकती है ..... जोश भरने के लिए नए नए ऑफर्स बिकते है…
सितम्बर- दिसंबर - इन चारों महीनों को संग में लिखने की गुस्ताखी के लिए मुआफी मगर यही सही है…. कभी दशहरा बिकता है… फिर दिवाली और दिवाली और दिवाली, फिर आने वाली गुलाबी सर्दियाँ, फिर क्रिसमस और सर्दी की छुट्टियाँ और फिर नया साल .....
इस माहवार बकैती के अलावा कहें तो किरकिट पूरा साल बिकता है…. कभी धमाकेदार खेल बिकता है कभी ताजगी भरी खुश्बुए बिकती है... कभी गोरा चेहरा बिकता है ... कभी किसी के सट्टे बिकते हैं .... सदाबहार शादियाँ बिकती हैं ...... अमिताभ से लेकर राजपाल तक बिकते हैं ..... विद्या से लेकर सनी बिकती है ..... चड्डी बनियान से लेकर घर से बाहर कंडोम का साथ बिकता है ...
संविधान की शपथ लेने वाले नेता बिकते हैं ...... बिकने से रोकने वाली वर्दी तक बिकती है…. जान बचने के लिए बने ऑक्सीजन के सिलेण्डर बिकते है ... तो सरहद की हिफाज़त के लिए बने टैंक बिकते है .... बिन ब्याही माँ के बेटे बिकते हैं और ब्याही माँ की बेटियां बिकती है ..... गरीब जीने के लिए बिकता है… और अमीर बिकने के लिए जीता है .... शहीदों के कफ़न के लिए बने तिरंगे बिकते हैं .... रेलवे की सवारी के लिए सीटें बिकती है ....
बच्चों की ऊंची पढाई के लिए बाप अपनी तनख्वाह बेचता है… और तनख्वाह के लिए अपनी ज़िन्दगी बेचता है…
फेसबुक के लिए मोबाइल और मोबाइल के लिए इन्टरनेट बिकता है… कोई खुद को बेच रहा है और कोई दूसरों को बेच रहा है…
मियाँ कूल डुड जी आप ही बताएं क्या हम हिंदुस्तानी सब नहीं बेच रहे हैं ....
Shailendra Raj Goswami